भूल जाओ रोजगार, ज़ोर से बोलते रहो वैश्य, कुशवाहा, ब्राह्मण, निषाद और भूमिहार !
रोजगार का सवाल अगर जाति की दीवार तोड़कर एकजुट होकर युवाओं ने पूछना शुरु कर दिया तो राजनीतिक दुकानें बंद हो जाएगी। इसीलिए आप युवा नहीं, कुर्मी-कोईरी, राजपूत, भूमिहार, ब्राह्मण, निषाद, वैश्य में बंटे रहे और जयंती मनाते रहें।
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जातीय गोलबंदी के लिए अलग-अलग महापुरुषों के नाम पर जयंती |
कभी सम्राट अशोक की जयंती के नाम पर कुर्मी-कोईरी वोट बैंक पर दावा, कभी भामाशाह की जयंती के नाम पर वैश्य समाज के वोट बैंक पर दावा, कभी परशुराम की जयंती के नाम पर भूमिहार ब्राह्मण के वोट बैंक पर दावा। कभी वीर कुंवर सिंह की जयंती के नाम पर राजपूतों को लामबंद करने की कोशिश। कभी बाबा साहेब अंबेडकर की जयंती के नाम पर दलितों को एकजुट करने की कोशिश, तो कभी किसी और महापुरुष की जयंती के नाम पर किसी और जाति वर्ग के लोगों को एकजुट करने की कोशिश। ज़रा इन तस्वीरों को गौर कीजिए।
ये बिहार है। बिहार जहां आपके नाम और काम में दिलचस्पी हो ना हो, लेकिन आपके सरनेम और जाति में लोगों की ज्यादा दिलचस्पी होती है और अगर आपने कुछ बेहतर काम कर लिया, तब तो पक्का आपकी जाति, उपजाति, गोत्र वगैरह सब खोज लिया जाता है और उस जाति के लिए आप गौरव की बात हो जाते हैं। चाहे यूपीएससी में टॉप करते हों, या कहीं कोई अवॉर्ड मिलता है, या कहीं किसी और क्षेत्र में झंडा गाड़ते हों। यानी जाति ही आपकी प्रथम पहचान है, तो फिर भला बिहार के महापुरुषों को कैसे इस जाति के बंधन से आजादी मिल सकती है। सो सम्राट अशोक से लेकर भामाशाह तक। बाबा साहेब से लेकर परशुराम तक, सभी को खास जाति के बंधन में बांधकर हर साल जयंती और पुण्यतिथि मनाई जाने लगी और उस जाति के लोगों को अपने पाले में लाने की होड़ चलने लगी, जो हर साल बढ़ती जा रही है। इस होड़ में तो अब एक ही गठबंधन में रहते हुए जेडीयू-बीजेपी भी आमने सामने आ जाती है। हाल ही में सम्राट अशोक की जयंती मनाने को लेकर दोनो पार्टियां आमने सामने आ गई। एक दिन पहले बीजेपी ने धूमधाम से जयंती मनाई। कुशवाहा जाति से यूपी के डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य को बुलाया गया। तो अगले दिन जेडीयू ने भी सम्राट अशोक की जयंती मनाकर खुद को सबसे सच्चा अनुयायी बता दिया।
वहीं
आरजेडी जिस पर कभी सवर्ण विरोधी होने के आरोप लगते थे। जिस आरजेडी को लालू ने
मुस्लिम यादव यानी MY के इर्द गिर्द बांधे रखा, उस आरजेडी को अब तेजस्वी भी A TO Z की पार्टी बनाने की कोशिश में जुटे हैं। बोचहां उपचुनाव और MLC चुनाव में इस कोशिश को कामयाबी मिलता देख तेजस्वी का हौसला और बढ़ा है। सो
परशुराम जयंती में शामिल होकर भूमिहार ब्राह्मण को रिझाने की कोशिश करते दिखे, तो
वैश्य समाज के लोगों को भी अपने पाले में करने की कोशिश में दिखे। दूसरी तरफ
तेजस्वी यादव और लालू यादव ने जातीय जनगणना कराने की मांग फिर से छेड़ दी है और
सीधे-सीधे कह दिया कि बिहार में जातीय जनगणना नहीं होगी, तो जनगणना नहीं होने
देंगे।
अब सवाल है कि क्या जाति के इर्द गिर्द सियासत कैसे घूमती है और कैसे इन जाति के लोग गोलबंद किए जाते हैं, तो इसके पीछे वो संगठन या संस्था काम करती हैं, जो जातियों के नाम पर अलग-अलग बनाए गए हैं। अखिल भारतीय कायस्थ महासभा, अखिल भारतीय तेली महासभा, अखिल भारतीय वैश्य महासभा, ब्राह्मण महासभा, भूमिहार एकता मंच, निषाद विकास संघ जैसे लगभग हर जाति के नाम पर अपनी-अपनी महासभा है, या संगठन है। इसी महासभा और संगठन के ज़रिए पार्टियां चंद सम्मेलनों का आयोजन कर किसी खास जाति के बीच एक छवि गढ़ने की कोशिश करते हैं या फिर उन्हें लुभाने की कोशिश करती हैं। भले ही इससे आम जनता से सीधे जुड़ाव हो ना हो, लेकिन आम जनता जो किसी जाति की हैं, उनतक जाति के नाम पर सियासी संदेश पहुंच जाता है।
तो सवाल है कि जाति जाती क्यों नहीं। आखिर बिहार में जातियों के नाम पर बांटकर ही राजनीति हो सकती है। सवाल का जवाब जानने के लिए आपको 90 के दशक के कुछ बड़े जातीय नरसंहारों को याद करना होगा।
1992- ज़मीन विवाद में गया में 34 सवर्णों की हत्या
1997- जहानाबाद के लक्ष्मणपुर बाथे में 58 दलितों का नरसंहार
1999- जातिगत संघर्षों के चलते 23 दलितों की हत्या
1999- जहानाबाद में मार्क्सवादियों ने 35 भूमिहारों की हत्या
की
2000- औरंगाबाद के अंदर 35 पिछड़े और दलितों की हत्या
सियासी पार्टियों की मंशा यही होती है कि जाति के नाम पर छोटे-छोटे और अपने वोट बैंक बरकरार रहे और एक जुट होकर जाति से ऊपर उठकर कोई चुनावी वादे, रोजगार, महंगाई, विकास के मुद्दे पर कोई सवाल ना पूछे। कोई युवा जाति से ऊपर उठकर ना पूछे कि साहब पिछले 30 सालों से बिहार को पलायन का केंद्र क्यों बना दिया है। कोई ये ना पूछे कि आखिर बिहार बेरोजगारी का केंद्र क्यों है। कोई ये ना पूछे कि आखिर बिहार सबसे युवा राज्य होने के बावजूद बेरोजगार क्यों है? कोई ये ना पूछे कि बिहार में कोई सरकारी बहाली पूरी होने में 8 साल से 10 साल तक क्यों लग जाते हैं। शिक्षकों के साढ़े तीन लाख पद खाली होने पर भी तीन साल से शिक्षक अभ्यर्थी सड़कों पर क्यों भटक रहे हैं।
ये सवाल अगर जाति की दीवार तोड़कर एकजुट होकर युवाओं ने पूछना शुरु कर दिया तो राजनीतिक दुकानें बंद हो जाएगी। इसीलिए आप युवा नहीं, कुर्मी-कोईरी, राजपूत, भूमिहार, ब्राह्मण, निषाद, वैश्य में बंटे रहे और जयंती मनाते रहें।
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