बिहार में बेरोजगारों की फौज पहले से 38 प्रतिशत बढ़ी , प्रवासी मजदूरों को कहां से मिलेगा रोजगार?
24 मई को एक क्वारंटीन सेंटर में रह रहे प्रवासी मजदूरों से वीडियो कांफ्रेंसिंग के दौरान संवाद के दौरान नीतीश कुमार को मजदूर ने कहा था, नून रोटी खाएंगे, बिहार में रहेंगे, तो जवाब में नीतीश ने भी कहा कि ठीक है, यहीं रहना है। लेकिन सवाल है कि उन मजदूरों को नून रोटी खाने के लिए भी क्या रोजगार मिल पाएगा। ये सवाल इसीलिए क्योंकि बिहार में पहले से ही बेरोजगारों की फौज खड़ी है, जिसे रोजगार देने में सरकार नाकाम रही, तो अब बाहर से लौटे इन 30 लाख मजदूरों को कहां से रोजगार देगी। क्योंकि बेरोजगारी के जो ताजा आंकड़े सामने आए हैं, वो कम से कम यही बताते हैं कि बिहार में रोजगार छोड़िए, नून रोटी पर भी आफत आ जाएगी। खास तौर पर तब जब बेरोजगारी की बोझ तले बिहार में करीब 30 लाख प्रवासी मजदूर भी लौट आए हैं और वो भी रोजगार की आस में नीतीश की ओर टकटकी लगाए बैठे हैं। तो सबसे पहले वो आंकड़े बताते हैं जिसके बारे में शायद अब तक आपको किसी ने नही बताया हो। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इकोनॉमी यानी CMIE ने अप्रैल 2020 का बेरोजगारी का आंकड़ा पेश किया है। उसके मुताबिक बिहार में बेरोजगारी के आंकड़ों में पिछले दो सालों में 40.2 प्रतिशत का इजाफा हुआ है। अप्रैल 2016 में ये दर 6.4 फीसदी ही थी। जबकि अप्रैल 2020 के बेरोजगारी आंकड़ों के मुताबिक बिहार में इस वक्त बेरोजगारी दर 46.6 फीसदी है, यानी युवाओं की संख्या के करीब आधे बेरोजगार हैं।
पूरे देश में बेरोजगारी दर के मामले में बिहार चौथे स्थान पर है। जबकि देश का बेरोजगारी दर 23.5 फीसदी है।
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Graphic Source- BusinessToday.in |
सबसे हैरानी की बात ये है कि मार्च 2020 में बेरोजगारी दर 15.4 फीसदी थी, लेकिन अगले ही महीने ये दोगुने से भी ज्यादा 46.6 फीसदी हो गई।
वहीं पिछले दो सालों की तुलना करें, तो 38.6 फीसदी का इजाफा हुआ। अप्रैल 2018 में बेरोजगारी दर 8 फीसदी थी।
वहीं पिछले साल के मुकाबले ये बढ़ोतरी 34.4 फीसदी का इजाफा हुआ। अप्रैल 2019 में बेरोजगारी दर 12.2 प्रतिशत थी।
अब सवाल है कि चुनावी साल में बेरोजगारों को रोजगार दे पाएगी नीतीश सरकार। खास तौर पर तब जब बाहर से आए 30 लाख प्रवासी मजदूर भी बिहार में रहकर रोजगार की आस में हैं। तो जवाब ना होगा। क्योंकि ये सिर्फ ज़ुबानी दावे भर हो सकते हैं, हकीकत में पिछले 15 साल में इंडस्ट्री या रोजगार सृजन के कोई मौके तलाश नहीं पाई नीतीश सरकार।
याद कीजिए 2005 का साल। जब नीतीश चुनाव जीतकर आए, तब नीतीश ने कहा था कि किसी को भी रोजगार के लिए बाहर नहीं जाना पड़ेगा, लेकिन अगर केरला में 1500 रुपए प्रतिदिन और तेलंगाना में 1200 रुपए प्रतिदिन दिहाड़ी मिले, तो बिहार में रहकर 300 रुपए हर रोज की दिहाड़ी कमाकर कौन रहना चाहेगा। वो भी काम मिलने की गारंटी नहीं, सो पलायन शुरु हुआ और नीतीश सरकार देखती रही। अब सोचिए 15 सालों में अगर उन बेरोजगारों को रोजगार के लिए पलायन करना पड़ा, तो आप क्या सोचते हैं नीतीश कुमार 6 महीने या साल भर में सबको रोजगार दे देंगे।
वैसे भी चुनावी साल में नेताओं के मुंह से घी औऱ शक्कर बरसते हैं, ताकि उसकी लालच में आप उनकी झोली में वोट बरसा दे, फिर ट्रेन पकड़कर परदेस जाते वक्त खुद को ठगा महसूस करें। इसीलिए बेहतर है झांसे में आने के बजाए ट्रेन पकड़कर परदेस जाने की तैयारी कर लीजिए। वैसे भी चुनाव में बेरोजगारी वगैरह जैसे फालतू मुद्दों पर चुनाव थोड़े ही ना लड़ा जाता है, यहां तो जाति कार्ड का पत्ता जिसका सटीक बैठा, उसके हाथ में सत्ता की मलाई। इसीलिए शायद बेरोजगारी के आंकडों से नीतीश घबरा नहीं रहे होंगे, क्योंकि उन्हें पता है कि जाति का कार्ड खेलते ही बढ़ते बेरोजगारों की यही फौज उन्हें फिर से सत्ता की मौज दिलाएगी। मतलब साफ है बेरोजगारी की बहार के बीच भी फिर से नीतीशे कुमार होंगे।
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